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Showing posts from 2008

मोहब्बत के रंग: रसीदी टिकट से एक और हिस्सा

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अमृता प्रीतम का प्यार कितनी तहों से झाँकता है और कितनी परतें उसे ढँकने आती हैं...ये बात रसीदी टिकट पढते हुए बख़ूबी समझी जा सकती है...एक पिछडे और वर्जनाओं से भरे समाज में अमृता प्रीतमों की शरणगाह शब्द हैं जो साहित्य होकर भी साहित्य की मान्यताओं के सामने रोडे अटकाते हैं. सुनिये सज्जाद ज़हीर से अमृता प्रीतम की वाबस्तगी का दर्द-

सुनिये अमृता प्रीतम की किताब रसीदी टिकट के एक हिस्से का बचा हुआ हिस्सा

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शायदा ने एक नया ब्लॉग शुरू किया है और इस ब्लॉग पर पहली पोस्ट इमरोज़ से मुलाक़ात के बारे में लिखी है. हमने अमृता प्रीतम की किताब रसीदी टिकट का जो हिस्सा यहाँ पेश किया था उसका बचा हुआ हिस्सा पेश करने का यह माक़ूल वक़्त है. सुनिये

चले गए राजीव सक्सेना

यहाँ भारत में f. m रेडियो के कद्रदानों के लिए आज एक बुरी ख़बर है । दिल्ली से प्रसारित f m gold चैनल के हरदिल अज़ीज़ एंकर राजीव सक्सेना का इतवार की दोपहर इंतक़ाल हो गया । अभी उम्र के चालीसवें दशक को भी पूरा न कर सके इस बेहद लोकप्रिय फनकार को कुछ दिन बाद ओलंपिक खेलों की लाइव कवरेज के लिए पेचिंग {चीन} जाना था । कार्यक्रमों में चुस्ती-फुर्ती बनाये रखते हुए शालीनता किस तरह बरक़रार रखी जाए इस मायने में वो एक स्कूल का दर्जा रखते थे । इरफान ये ख़बर सुन कर इतने सकते में हैं की कुछ कहते ,लिखते नहीं बन पा रहा है । उनसे क़रीबी रिश्ते के अलावा जो बात और ज़ियादा परेशान करती है वो ये के अभी महज़ पन्द्रेह रोज़ पहले इरफान ने अपने ब्लॉग टूटी हुई बिखरी हुई पर जब उनसे हुई एक पुरानी बातचीत जारी की तो सपने में भी ये सोच पाना नामुमकिन था के इतनी जल्दी वो अपने चाहने वालों को छोड़ कर चले जायेंगे । आर्ट ऑफ़ रीडिंग की और से उन्हें श्रद्धांजली ।

संडे स्पेशल: आज सुनिये लपूझन्ने का बचपन और कर्नल रंजीत

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मैंने पहले भी कहा है कि लपूझन्ना मेरा पसंदीदा ब्लॉग है. इसमें न तो कोई मुझसे सफ़ाई माँग सकता है और न ही यह आरोप लगा सकता है कि हम अपनी यारी निभाते हुए ये भूल रहे हैं कि इस पोस्ट से भी अच्छी कई पोस्टें हैं जो इस पर भारी हैं और हम संडे स्पेशल में उन्हें नज़र अंदाज़ कर रहे हैं. अब तो हम इन बातों पर कान भी नहीं देते क्योंकि आख़िरकार आर्ट ऑफ़ रीडिंग हमारे मन की तरंग है और इसमें हम अपने वक़्त और पूँजी का ख़ासा ख़सारा कर रहे हैं. पिछले हफ़्ते हमें अपनी व्यस्तताएँ ज़्यादा प्यारी रहीं क्योंकि हमें अपने बिल भी तो चुकाने होते हैं। कर्नल रंजीत और विज्ञान के पहले सबक़

सुनिये अमृता प्रीतम की "रसीदी टिकट" से एक हिस्सा

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अमृता प्रीतम हर किसी की ज़िंदगी के एक मोड पर कहीं न कहीं शामिल होती हैं और कुछ अनचीन्हा सा छोड जाती हैं या कहें जोड जाती हैं. पेश करता हूँ "रसीदी टिकट" से एक हिस्सा. Voice and presentation: Irfan Dur: 10 Min Approx

ज्ञानरंजन के कबाड़खाने से उपन्यास अंश के अंश

अशोक पांडे का इसरार टाला न जा सका । हम ख़ुद भी ज्ञान रंजन जी के प्रशंसकों में हैं। जब से कबाड़खाना पढा है तब से ही इस उपन्यास अंश के दीवाने हैं । सुनिए और बताइये कि पाठ के साथ कितना न्याय हो सका? ज्ञान रंजन के कबाड़खाने से उपन्यास अंश के अंश। स्वर इरफ़ान ।

सन्डे स्पेशल में आज सुनिए ; हारमोनियम

पिछले संडे हम हाज़िर न हो सके तो उसकी वजह महज़ वो बदमज़गी नहीं थी जो कुछ वरिष्ठ और बेहद गरिष्ठ ख़ानसामों ने पैदा की थी, और न ही वो एक्सीडेंट जिसमें मैं मर भी न सका, न तो ये कि भाई मुनीश शनीचर की शाम घंटों मुझे आवाज़ देते रहे और मैं कान में रुई डाले पडा रहा, न ये कि हमारे ब्रॉडबैंडवालों ने हमें ब्लॉगिंग से वंचित रखने की कामयाब कोशिश की, और न तो ये हम आपके रिस्पॉंसेज़ से संतुष्ट नहीं हैं. असल में घुमक्कडी की पुरानी हूक हमें सोहना के पास एक खूबसूरत पहाडी झरने तक ले गई जहाँ हम मौसमी बहारों का लुत्फ़ लेने में इतने मुलव्विस थे कि हमें अपने वादे तक की याद न रही. फिर सोने में सुहागा ये कि वहाँ हम निशा मधूलिका के सिखाए पालक के पकौडों का ज़ायक़ा लेते रहे. हालाँकि हमारे मोबाइल ऑन थे और संडे स्पेशल के मद्दाहों के एसएमएस भी आते रहे जिन्हें हम बेदर्दी से डीलिट करते रहे. आख़िर हम अपने मन की तरंग के लिये ही तो ये अगडम-बगडम पोस्टें पब्लिश करते रहते हैं! सच कहें इस दौरान हमें ब्लॉगिंग से दूर रहने का कोई मलाल तो दूर ज़रूरत भी नहीं रही. ये ज़रूर हुआ कि इन्हीं एसएमएसेज़ में से एक में हमें नौकरी से निकाल देने की धमकी

काँटे और याद

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सुनिये त्रिलोचन की एक कविता "काँटे और याद" । आवाज़ रजनीश मिश्र की है.

क्या तुमने कभी कोई सरदार भिखारी देखा?

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पिछले दिनों मैंने स्वयं प्रकाश की यह कहानी आपसे माँगी थी. हमारे ब्लॉगर साथी मोहन वशिष्ठ ने इसे मुझे मुहैया कराया है. उनके प्रति आभार व्यक्त करते हुए यह कहानी उन्हें ही सादर भेंट की जाती है. कोई दस साल पहले जब सहमत ने सांप्रदायिकता विषयक कहानियों का एक संग्रह छापा तभी इस कहानी पर मेरी नज़र गई थी. इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद मचे क़त्ल-ए-आम की यह दस्तावेज़ी कहानी है. कई मायनों में यह एक समकालीन कहानी, मानवता के संकटों को सामने लाती है। Part-1 10 min approx Part-2 10 Min approx स्वर इरफ़ान का है और साथ में हमारे साथी मुनीश इसे कई जगहों पर प्रभावकारी बना रहे हैं। अवधि लगभग बीस मिनट.

संडे स्पेशल:आज सुनिये सुखदेव साहित्य से पीढियों का लुत्फ़

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"मेरी उम्र छियासी हो चुकी है.मैं साहित्यसेवी हूं.मेरी रचनाएँ यहां हैं .आप की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी." सुखदेवजी ने अपने प्रोफ़ाइल में भले ही यह संक्षिप्त सा परिचय दिया है लेकिन उनके अनुभव और उनसे मिलने वाली रोशनी को शायर के शब्दों में यूँ कहना होगा- एक बूढा रह रहा इस शहर में या यूँ कहें एक सूने घर में जैसे कोई रोशनदान है मैं छियासी वर्षीय सुखदेवजी को महज़ अजय ब्रह्मात्मज के पिता के रूप में प्रस्तुत करना उनकी मौलिकता और रचनात्मक उत्साह का उपहास मानता हूँ . ख़ुद उनके ही शब्दों में कहना हो तो शायद कहा जाएगा- तुम क्या खाकर वह लिखोगे जो मैं भोगकर लिख रहा हूँ. लम्बे समय से ब्लॉगजगत में पूरे उत्साह से लगे सुखदेव साहित्य का रुख़ करना जो लोग हेय समझते हैं उनके लिये भी आज पेश है- पीढियों का लुत्फ़ स्वर मुनीश का है । अवधि कोई पाँच मिनट ।

सुनिये "ये कौन सख़ी हैं जिनके लुहू की अशरफ़ियाँ छन-छन-छन-छन"

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अपने हिंदुस्तान में इस तरह की साहित्यिक प्रस्तुतियाँ कहाँ हैं, ये आप हमें बताएंगे। फिलहाल आइये सुनिये फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की एक नज़्म में आर्ट ऑफ़ रीडिंग और मलिका पुखराज को। पुरुष स्वर किसका है ये बात सीडी का फ़्लैप खो जाने से मुझे याद नहीं रही। कोई बताए तो दर्ज कर दूँगा. "ये कौन सख़ी हैं जिनके लुहू की अशरफ़ियाँ छन-छन-छन-छन"

सन्डे स्पेशल में आज : मोहन थाल

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ब्लॉगर निशा की दिशा जरा अलग है जो आपको खोजनी नहीं पड़ती बल्कि भरवां बैंगन, भुने मावे या खड़े मसाले की महक से आप ख़ुद -ब-ख़ुद उस तरफ खींचे चले जाते हैं. इस बार एक अद्भुत चमत्कारी व्यंजन मोहन थाल की सोंधी बेसनी महक हमें निशा मधुलिका जी के ब्लॉग पर बरबस ही खींच लायी है. फिल्म दीवार में विजय ,रवि से कहता है, '' तुम्हारे सब उसूलों को गूंध कर दो वक़्त की रोटी नहीं बनाई जा सकती रवि '' । इसी तरेह बाकी सब ब्लोग्गरों की लफ्फाज़ी से कुल मिलाकर ऐसा कुछ हासिल नहीं हो सकता जैसा निशा जी की व्यंजन विधियों से जिन्हें वाकई देखा, चखा और महसूसा जा सकता है. चाहता था खुद ये पोस्ट पढूं मगर भावुकता के अतिरेक में पढ़ नहीं पा रहा था इसलिए इरफान से आग्रह किया। सो आप सुनें मोहन थाल बनाने का तरीका, जय श्री कृष्ण: जिन हज़रात को को इस डिश के चमत्कारी होने पे शक हो वो ईश्वर के जिस भी रूप को मानते हों उसका नाम ले कर ये डिश बनायें और अपनों-परायों दोनों में बाँट दें और अपना शक दूर कर लें.

सबसे अच्छे दिन

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ये हमारे साथी शरद तिवारी हैं. सुनिये शरद से सबसे अच्छे दिन . अवधि कोई डेढ मिनट. सबसे अच्छे दिन

गोली दाग़ो पोस्टर

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लीजिये सुनिये आलोकधन्वा की एक प्रतिनिधि कविता- गोली दाग़ो पोस्टर . हालाँकि मेरा मानना है कि इसका सबसे अच्छा पाठ ख़ुद आलोकधन्वा ही कर सकते हैं लेकिन हमारे साथी अश्विनी वालिया ने कोशिश की है कि इसके पाठ के साथ न्याय किया जा सके. कितना न्याय हो सका है और हमारी पेशकश कैसी लगी, यह जानने की उत्सुकता रहेगी. अवधि कोई पाँच मिनट. गोली दाग़ो पोस्टर

बंद खिडकियों से टकराकर

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सुनिये गोरख पांडेय की कविता बंद खिडकियों से टकराकर । ये आएंगे अच्छे दिन नाम की ऑडियो सीडी में भी है। स्वर हमारी सहकर्मी पूनम श्रीवास्तव का है.

सुनिये त्रिलोचन की एक ग़ज़ल

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ग़ज़ल के शुरू में आवाज़ ज्योत्सना तिवारी की है और ग़ज़ल पेश कर रहे हैं पंकज श्रीवास्तव । त्रिलोचन की ग़ज़ल " आप कहते हैं तो अपनी भी सुना देता हूँ मैं "

संडे स्पेशल: थोडी-थोडी पिया करो!

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दोस्तो जहाँ एक तरफ़ हम जैसे ब्लॉगर हैं जो महज़ मौज-मेले , दिलजोई और रंगबाज़ी के लिए ब्लॉगिंग किया करते हैं वहां ऐसे दानिशमंदों की भी कमी नहीं जो समाजी भलाई और किसी नेक काज की खातिर इसे एक धारदार औज़ार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं । ऐसे शानदार लोगों के हम कायल हैं और उनकी इस सोच को सलूट करते हैं । ऐसे ही एक शख्स हैं डॉक्टर प्रवीण चोपडा जो मीडिया के ज़रिये लोगों मे फैली मेडिकल ग़लत फहमियों को दूर करने के मिशन में लगे हैं और उनकी पोस्ट '' थोड़ी - थोड़ी पिया करो ...'' को शायद आपने भी पढ़ा हो , नहीं भी पढ़ा तो कोई हर्ज नहीं हम आपको सुनवाये देते हैं........ आवाज़ मुनीश की है और अवधि कोई पाँच मिनट. डाउनलोड यहाँ से करें.

पत्ता तुलसी का

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ये है राजेश जोशी की कविता "पत्ता तुलसी का" इरफ़ान की आवाज़ में.

संडे स्पेशल: आज सुनिए शायदा के ब्लॉग से एक पोस्ट !

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आर्ट ऑफ़ रीडिंग में वादे के मुताबिक़ हम हाज़िर हैं अपनी इतवार की ख़ास पेशकश के साथ. हमने नज़र दौडाते हुए शायदा के ब्लॉग पर मौजूद उनकी पहली पोस्ट को चुना है. इस पोस्ट को आप मातील्दा नाम के ब्लॉग पर पहले पढ चुके हैं और सराह भी चुके हैं. अब लीजिये इरफ़ान की आवाज़ में इस पोस्ट को सुनिये और अगले इतवार का इंतज़ार कीजिये, जब आपकी भी कोई पोस्ट यहाँ पढी जा रही होगी. अवधि कोई साढे तीन मिनट है. डाउनलोड करके सुनने के लिये लिंक यहाँ है। एक घर, जो हवा में तैरता है

एक दिन आता है!

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सुनिये रघुवीर सहाय की कविता "एक दिन आता है"। आवाज़ इरफ़ान की है। अवधि एक मिनट। डाउनलोड लिंक । इमेज : साभार किमतेलास

दो बाँके

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आज पेश है भगवती चरण वर्मा की कहानी दो बाँके . आवाज़ है हमारी साथी अपर्णा घोषाल की. अवधि कोई पंद्रह मिनट. डाउनलोड करने के लिये लिंक ये रहा .

जो ब्लॉगर अपने लिखे शब्दों से प्यार करते हैं, उनके लिये सूचना!

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आपको यह जानकर शायद अच्छा लगे कि आर्ट ऑफ़ रीडिंग में हम एक नया फ़ीचर जोडने जा रहे हैं. हमने यह ब्लॉग बनाया ही इसलिये है कि आप छपे हुए शब्दों की ध्वन्यात्मक सुंदरता से दो चार हो सकें. इस दिशा में हम अपनी कारोबारी व्यस्तताओं और प्रोडक्शंस के थकाऊ चक्करों के बीच अपने मन की तरंग का काम उसी तरह करते रहेंगे जैसा आप अभी तक देखते-सुनते आए हैं. हमें अपनी साहित्यिक धरोहर के अनमोल मोतियों से दिली लगाव है और नितांत निजी कारणों और रुचियों से हम इस ख़ज़ाने के मोती आपके सामने रखते रहेंगे. संयोग से ये आपको भी अच्छे लगेंगे तो हम समझेंगे कि "हमारी और आपकी राय कितनी मिलती-जुलती है!" हाँ तो मैं एक नये फ़ीचर की बात कर रहा था. दरअस्ल ये नया फ़ीचर हमारे आपके प्यारे क़िस्सागो मुनीश मयख़ानवी के दिमाग़ की उपज है. हम दोनो एक दोपहर पीपल के एक पेड के नीचे सिगरेट से धुआँ उडाते हुए इस बात पर सहमत हुए कि यार लोग इतनी अच्छी-अच्छी पोस्टें अपने-अपने ब्लॉग्स पर लिखते हैं लेकिन कई बार ब्लॉग परिवार में मची हलचलों या ऐसे ही कुछ नामाक़ूल कारणों से वो पोस्टें इतनी तवज्जो नहीं हासिल कर पातीं, जिनकी वो हक़दार होती हैं, तो

धुआँ

मंटो की ये कहानी कई स्तरों पर मन की टटोल और कशमकश की कहानी है. आवाज़ मुनीश की है. कहानी कोई बीस मिनट लंबी है. सुनिये धुआँ.

केशव अनुरागी

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मंगलेश डबराल की कविता केशव अनुरागी बीते बरसों में ख़ासा चर्चा में रही. सुनिये उन्हीं की आवाज़ में केशव अनुरागी .यह कविता कोई पाँच साल पहले मैंने दिल्ली में मंगलेशजी के घर पर कई दूसरी कविताओं के साथ रिकॉर्ड की थी. अवधि कोई तीन मिनट है. पोस्ट प्रोडक्शन भी मैंने ही किया है.

जो मेरे घर कभी नहीं आएँगे!

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आर्ट ऑफ़ रीडिंग का आप की तरफ़ से जो स्वागत हुआ है उसके लिये हम आपके आभारी हैं। आज सुनिये विनोद कुमार शुक्ल की कविता "जो मेरे घर कभी नहीं आएँगे". आवाज़ अतुल आर्य की है जिन्हें आप द नेशनल ज्योग्राफ़िक चैनेल, द हिस्ट्री चैनल और द डिस्कवरी चैनेल पर सुनते हुए ख़ूब पहचानते हैं. फ़ोटो सौजन्य: निर्मल-आनंद

इंस्टॉलमेंट

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पेश है भगवतीचरण वर्मा की कहानी इंस्टॉलमेंट . कहानी आज़ादी के पहले लिखी गई है. आवाज़ मुनीश की है. Duration: Approx. 10 Min

राग दरबारी से एक हिस्सा

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श्रीलाल शुक्ल का उपन्यास राग दरबारी किसी परिचय का मुहताज नहीं है. आज सुनिये राग दरबारी का एक अंश. ------------------ क़िस्सागो: मुनीश Dur. 08 Min. 43 Sec.

बंदर चढा है पेड पर...

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बंदर चढ़ा है पेड़ पर करता टिली-लिली... सुनिये दिनेश कुमार शुक्ल की एक और कविता. दिनेश जी की एक कविता आप यहां पहले भी सुन चुके हैं. यहां प्ले को चटकाएं और कविता सुनें.

मर्सिया

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मोहर्रम के बारे में मुझे ज़्यादा कुछ मालूम नहीं है. बस यही कि ये हज़रत हसन-हुसेन की शहादत का महाशोक है. बचपन में मुझे साथ के बच्चों की तरह ये बहुत शौक़ था कि मैं भी मुहर्रम के ताज़िये देखूँ लेकिन ये अरमान 17 साल की उमर में इलाहाबाद आकर ही पूरा हुआ. जिन लोगों की भावनाएँ इस घडी से जुडी हैं उनका पूरा सम्मान करते हुए मैं आपके लिये पेश कर रहा हूँ शाकिरा ख़लीली की आवाज़ में इस दुख का कारुणिक साझा. मिथकों के साथ समकालीन संवेदना का ऐसा सामंजस्य मुझे दुर्लभ लगता है. इस बात से अलग एक और बात कि मानवकंठ कितनी जादुई संभावनाएं लिये रहता है.आज की मशीनी कुकिंग से गुज़रते और संगीत के शोर से बजबजाते गाने एक तरफ रखिये और शाकिरा ख़लीली की आवाज़ दूसरी तरफ...अब मुझे लिखिये कि कैसा लगा! Duration. 05Min 03Sec

काकी

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हमारा साहित्य कई कालजयी रचनाओं से भरा पडा है. मानवता की करुण दास्तानें और उनकी निर्दोष अभिव्यक्तियों की बानगियाँ चप्पे-चप्पे पर दर्ज हैं. रेडियो रेड समय-समय पर इन्हीं रचनाओं का महत्व और उत्सव रेखांकित करता रहता है. इसी क्रम में आज पेश है सियारामशरण गुप्त की शॉर्ट स्टोरी काकी . आवाज़ है हमारी सहकर्मी राखी की. अवधि : लगभग 5 मिनट

बू

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सआदत हसन मंटो किसी परिचय के मोहताज नहीं है. उन्हीं के शब्दों में- "ज़मानेके जिस दौर से हम गुज़र रहे हैं, अगर आप उससे नावाक़िफ़ हैं तो मेरे अफ़साने पढ़िये. अगर आप इन अफ़सानों को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो इसका मतलब ये है कि ये ज़माना नाक़ाबिले बर्दाश्त है. मुझमें जो बुराइयां हैं वो इस अहद की बुराइयां हैं.मेरी तहरीर में कोई नुक़्स नहीं है.जिस नुक़्स को मेरे नाम से मंसूब किया जाता है, दरअस्ल मौजूदा निज़ाम का नुक़्स है--मैं हंगामापसंद नहीं. मैं लोगों के ख़याल-ओ-जज़्बात में हेजान पैदा करना नहीं चाहता.मैं तहज़ीबो तमद्दुन की और सोसायटी की चोली क्या उतारूंगा, जो है ही नंगी. मैं उसे कपड़े की पहनाने की कोशिश भी नहीं करता क्योंकि यह मेरा काम नहीं...लोग मुे सियाह क़लम कहते हैं, लेकिन मैं तख़्ता-ए-स्याह पर काली चाक से नहीं लिखता, सफ़ेद चाक इस्तेमाल करता हूं कि तख्ता-ए-स्याह की सियाही और ज़्यादा नुमाया हो जाए. ये मेरा ख़ास अंदाज़, मेरा ख़ास तर्ज़ है जिसे फ़हशनिगारी, तरक़्क़ीपसंदी और ख़ुदा मालूम क्या-क्या कुछ कहा जाता है--लानत हो सआदत हसन मंटो पर, कंबख़्त को गाली भी सलीक़े से नहीं दी जाती. ली

किताब पढकर रोना

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रोया हूं मैं भी किताब पढकर के पर अब याद नहीं कौन-सी शायद वह कोई वृत्तांत था पात्र जिसके अनेक बनते थे चारों तरफ से मंडराते हुए आते थे पढता जाता और रोता जाता था मैं क्षण भर में सहसा पहचाना यह पढ्ता कुछ और हूं रोता कुछ और हूं दोनों जुड गये हैं पढना किताब का और रोना मेरे व्यक्ति का लेकिन मैने जो पढा था उसे नहीं रोया था पढने ने तो मुझमें रोने का बल दिया दुख मैने पाया था बाहर किताब के जीवन से पढ्ता जाता और रोता जाता था मैं जो पढ्ता हूं उस पर मैं नही रोता हूं बाहर किताब के जीवन से पाता हूं रोने का कारण मैं पर किताब रोना संभव बनाती है. रघुवीर सहाय आवाज़ : इरफ़ान ........ अवधि : लगभग डेढ मिनट

नंगी आवाज़ें

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मंटो की कहानियाँ मेहनतकश जनता के मनोजगत का दस्तावेज़ भी हैं. सुनिये नंगी आवाज़ें और महसूस कीजिये उस मानवीय करुणा का ताप, जिसे बाहर रहकर पेश कर पाना बडे जिगरे का काम है. शुरुआत में आवाज़ें अरशद इक़बाल और मुनीश की हैं. क़िस्सागो : इरफ़ान Duration: 20 Min.

दरियाई घोडा

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हमारे यहां क़िस्सागोई की पुरानी परंपरा है . पिछले कई बरसों से योरप और अमेरिका के क़िस्सागो दिल्ली आ रहे हैं और इंडिया इंटरनेशनल सेंटर , इंडिया हैबिटैट सेंटर और ब्रिटिश लायब्रेरी जैसे सुरुचिपूर्ण अड्डों पर कथावाचन करके हमारे मुंह आईनों की तरफ़ घुमा रहे हैं . दो - एक दिन इन हलचलों का असर अख़बारों के पेज थ्री पर रहता है और तस्वीरें छपती हैं फिर सब कुछ सामान्य हो जाता है . वो लोग तो यहां तक कह कर चले जाते हैं कि आपके यहां कथावाचन मर रहा है , यह सुनकर हमारे लोग कभी नॊस्टैल्जिया तो कभी सेंस ऒफ़ प्राइड से भर जाते हैं . जिस एक चीज़ की कमी रह जाती है , वो है शर्म . इसी शर्म से उन्हें बचाने के लिये मेरी संस्था रेडियो रेड वाचिक परंपरा को बचाने और पुनर्जीवित करने में लगी है . पिछले दस वर्षों से जारी हमारी कोशिशों में हिंदी की संस्थाओं और संस्कृति संरक्षण के पैरोकारों ने झूठी तसल्ली भी नहीं जोड़ी है . इस वाचिक परंपरा की याद जब विदेश में सक्रिय storytell